हँस के हर दर्द को यूँ सहते रहे
मोम की तरह से पिघलते रहे
खाए ठोकर ज़माने में कितने
वफ़ा में दर्द बहुत कहते रहे
था जिसे ग़म नही कभी कोइ
ग़म के आंसू भी आज पिते रहे
वो जो खुलकर मिले थे हमसे कभी
क्यों ज़माने आज डरते रहे
थे किसी की निधि वो कभी समझे
'सारथी' आश लिए जीते रहे
मोम की तरह से पिघलते रहे
खाए ठोकर ज़माने में कितने
वफ़ा में दर्द बहुत कहते रहे
था जिसे ग़म नही कभी कोइ
ग़म के आंसू भी आज पिते रहे
वो जो खुलकर मिले थे हमसे कभी
क्यों ज़माने आज डरते रहे
थे किसी की निधि वो कभी समझे
'सारथी' आश लिए जीते रहे
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