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Thursday, 17 November 2011

मेरा शहर

हैं लोग हर तरह के कहते मेरे शहर में
बदन लौह है दिल मोम रखते मेरे शहर में

हर ओर हरियाली , खुशहाली संग में
सब मिलके बस्तियां बनाते मेरे शहर में

हर कौम से अलग मजहब है हमारा
हैं पाठ प्यार का पढ़ाते मेरे शहर में

हर एक छत के नीचे बस मिलते आदमी
है इन्सान सभी रहते मेरे शहर में

हर एक के लिए है हर एक सारथी
है मिलके बोझ उठाते मेरे शहर में

Friday, 4 November 2011

बिन ’सारथी’ रथ को नज़र नहीं होता

गर तेरी शोख निगाहों का कहर नहीं होता
मेरी जिन्दगी में ऐ दोस्त सहर नहीं होता

अब फ़क़्त दुआओं का ही दौर चलने दो
दवाओं का अब क्योंकर असर नहीं होता

यूँ तो हर वक़्त मिलने की बात करते हो
क्यों उन बातों पर कभी अमल नहीं होता

कभी आ के देख, हम क्या हैं तेरे बिन
अब ये जिन्दगी तन्हा बसर नहीं होता

कैसे जीवन का ये रथ आगे बढ़ाओगे
बिन ’सारथी’ रथ को नज़र नहीं होता

Tuesday, 4 October 2011

कश्मकश

मैँ तुम्हेँ याद नहीँ करता
नहीँ चाहता तुम्हे याद करना
पर क्या करूँ ?
हर बार घूम जाता है तेरा चेहरा
मेरे ऑखोँ के सामने ।

मैँ चाहता हूँ तुम्हेँ भुलना
पर क्या करूँ ?
फोन की हर एक घंटी मेँ
तेरे होने का एहसास होता है ।

क्योँ उदास हो जाता है मेरा मन
फोन पर तुझे न पाकर
कभी तुम तो नहीँ सोचते मुझे
फिर मैँ क्योँ सोचता हूँ तेरे बारे मेँ

नहीँ चाहता तुम मेरी सोच मेँ आओ
यही सोच होता हूँ परेशान
कि कैसे न आओ
तुम मेरी सोच मेँ ।

हर बार सोचता हूँ नहीँ सोचूंगा
तेरे बारे मेँ अबके बाद
पर तुम्हेँ ही पाता हूँ , हर सोच से पहले , हर सोच के बाद .........।

Thursday, 29 September 2011

कसूर

क्या कसूर था मेरा ,
क्योँ लुट गई मेरी अस्मत ?
चढ गई भेँट भीड़ की मैँ
पैदा होना क्या गुनाह था ।

तबसे लेकर आज तक
एक दर्द सिने मेँ छुपाये
दूनिया से नजर बचाये
चल रही अकेली - सुनसान मेँ ,
भीड़ - भाड़ वाली सड़को पर भी ,
बिल्कुल अन्जान - अकेली ।
क्या था कसूर मेरा
मैँने चाहा इसे जानना
पर नहीँ जान पाई उस
प्रश्न के उत्तर को , चाह कर भी -
क्या यही कसूर था कि ,
मैँ किसी खास संप्रदाय की ,
बेटी थी !
जो चढ गई दंगाइयो की भेँट
बस इसलिए कि उसका
कोई कसूर न था ।
चाह कर भी न रोक पाई
अनहोनी को ,
आज भी मैँ खोजती हूँ ,
कहाँ हूँ मैँ ?
तो पाती हूँ खुद को
आज भी उन्हीँ दंगाइयोँ के
माँ - बहु - बेटियोँ के आसपास ........!

बदलाव

क्योँ जुड़ जाती है जिँदगी ?
किसी के मुस्कान से इस तरह ,
कि लगने लगती है हर चीज ,
बेजान उस मुस्कान के बगैर ।
क्योँ उसे गौर नहीँ करने पर भी ?
अपनी हजार खुशियाँ न्यौछावर है ,
उसकी एक हँसी के लिए ।
क्या हो जाता है हमेँ ?
उसे उदास देखकर ।
क्योँ भर जाती है आँखे ?
उससे बिछड़ने की कल्पना भर से ,
पर दूर तो होना ही था , सो हो लिए ।
इस उम्मीद के साथ कि ,
वो याद रक्खेगी हमेँ ,
बतायेगी अपने सारे राज ,
पहले की तरह ।
खोल कर रख देगी अपनी जिँदगी
के सारे पन्ने ,
काश ! ऐसा ही होता
तो मैँ न घबराता , न पाता ,
खुद को इतना अकेले ।
पर क्या करूँ ?
तन्हा था , तन्हा हूँ
और तन्हा ही रहूँगा
उसकी याद के साथ ..........!

Sunday, 18 September 2011

तेरी याद आ गई ............

फिर छा गई है बदरी , तेरी याद आ गई
फुलोँ पे देख भँवरे तेरी याद आ गई

जब भी की कोशिशेँ मैँ भुलने की वो शमां
अनजाने रहगुजर से तेरी याद आ गई

तुमको नहीँ पता मैँ करता हूँ इंतजार
तुम आओ या न आओ तेरी याद आ गई

आमोँ की डालियोँ पर कोयल की सुनकर
फुलोँ की क्यारियोँ मेँ तेरी याद आ गई

सबने हमीँ से पुछा पुनम की चाँद को
वो बात क्या छुपायी तेरी याद आ गई

मौसम ने की शिकायत जिँदगी से एक दिन
मैँ रह गया था तन्हा तेरी याद आ गई

चाहा जो जाना इकदिन खुद से खुदा से दुर
है शुक्र - ए - खुदाया तेरी याद आ गई

है ऐतबार मुझको वफा पे मेरे सनम
सुना लफ्ज़े बेवफ़ाई तेरी याद आ गई

होता जो कोई मेरे दिल का भी ' सारथी '
कोशिश की ढुढने की तेरी याद आ गई

Friday, 16 September 2011

बचपन

कहाँ गया वह मेरा बचपन ,
कहाँ गयी उसकी अंगराई ,
कहाँ गया उच्छृंखल जीवन ,
क्योँ आती है ये तन्हाई ?

कहाँ गया ममता का आँचल ,
कहाँ गयी उसकी अंगराई ,
कहाँ गया वो लाड - प्यार ,
अपनी छत क्योँ हुई पराई ?

यौवन मेँ बचपन सोता है ,
खोती बचपन की अंगराई ,
अल्हड. जीवन खो जाता है ,
आती जीवन मेँ तन्हाई ।

उड. जाता ममता का आँचल ,
खो जाती उसकी गहराई ,
लाड - प्यार जाते देखा है ,
आकर जाना ही लेखा है ।

फिर से ममता की बारिश हो ,
नई दृष्टि पा जाए जीवन ,
कदम बढे स्वच्छंद हमारा ,
काश ! अगर आ जाए बचपन ।

Tuesday, 6 September 2011

गज़ल

ग़म नहीं इस बात का कि तुमने हमें भुला दिया
गम रहा तो फ़क़त ये कि हम न तुम्हे भुला सके ।


तुमने बहुत कहा मुझे सुन ली तेरी हर दास्तां
बस तेरी दर्द-ए-जफ़ा किसी को न सुना सके ।


काट ली हर रात यों यादों के तेरे वास्ते
सो गई दुनिया, पर खुद को न हम सुला सके ।


बह गये जज्बात मेरे इस नदी की धार में
इक तेरे गम ही रहा जिसको न हम बहा सकें ।


हिल गया दिल ये मेरा सुनके वफ़ा की राह को
तुम तो वो जमीन हो जिसको न हम हिला सके ।

Sunday, 4 September 2011

अपना नहीं होता ......

मत कहो हर बात कोई अपना नहीँ होता
झुठे हैँ जज्बात  कोई अपना नहीँ होता ।

देखा न करो ख्वाब खुली आँखोँ से
सच कहीँ कोई कभी सपना नहीँ होता ।

जिँदगी बढती ही रहती हर घड़ी
इक मोड़ पे रुकना कोई रुकना नहीँ होता

मत सोच तुमसे छोटा है कोई कहीँ
झुक के मिलना भी कभी झुकना नहीँ होता ।

कुछ बात समझ लिजैँ इशारोँ से भी
हर बात जुबां से कहेँ कहना नहीँ होता ।

जिँदगी कहती है चलते रहने को
पर राह से हटके कोई चलना नहीँ होता ।

हैँ दूरियाँ एक छत के नीचे रहके भी
दिल से दुर रहके कोई रहना नहीँ होता ।

तुम दूर मुझसे इतना जो होते नहीँ
चाँद को पाने को मचलना नहीँ होता ।

सारथी चलता ले रथी को साथ मेँ
थक के रुकना भी कभी थकना नहीँ होता ।

रहें कैसै ?


चाह कर के भी हम तुम्हें चाहें कैसे,
तुम्हीं को दिल दिया ये तुमसे कहें कैसे ?

दर्द-ए-जुदाई, गम मिले तो पी गए,
बदनामियाँ जफा की मगर सहें कैसे ?

हमने तुमको कह दिया दिल में रहेंगे,
अब तुम्हारे बिन हम कहो रहें कैसे ?

जिन्दगी चलने को उकसाती रही,
बिन तुम्हारे इक भी कदम चलें कैसे ?

अब अकेले चलने की हिम्मत नहीं,
पग रोकना भी चाहे  तो रुकें कैसे ?

जब जब तेरी बेबसी सामने आती,
उन आंसुओं के बीच हम हँसें कैसे

कह दिया तेरी जरूरत अब नहीं,
सारथी बिन रथ भला चले कैसै ?

Friday, 2 September 2011

जागरण गीत...

उठो देश के नौजवानों ,
आपस में अब लड़ना छोड़ो ,
देखो कोइ लूट रहा है ,
उसे लूटने से अब रोको ।

लूटा करते थे पह्ले भी ,
लेकिन एक मर्यादा थी ,
आते लूट मचाते जाते ,
ना वह घर की पीड़ा थी ।

अब लूट रहे है वही हमें ,
समझे जिसको हम रखवाले ,
भेद करना अब बडा कठिन ,
है कौन हमे समझने वाले ।

लोकतंत्र अब बना है केवल ,
पथ कुर्सी तक जाने को ,
बैठ कुर्सी पर मतलब है ,
लाईसेंस लूट का पाने को ।

अन्न उगाते जी भर के ,
पर जनता दाने को मोहताज ,
सेठ करे अपनी मनमानी ,
गोदामो में भरा अनाज ।

अब जाग – जाग हे! नौजवान ,
ना जा तुम केवल खलिहान ,
है तुम्हे पूछ्ने का अधिकार ,
गया तुम्हारा अन्न कहा ?