क्या कसूर था मेरा ,
क्योँ लुट गई मेरी अस्मत ?
चढ गई भेँट भीड़ की मैँ
पैदा होना क्या गुनाह था ।
तबसे लेकर आज तक
एक दर्द सिने मेँ छुपाये
दूनिया से नजर बचाये
चल रही अकेली - सुनसान मेँ ,
भीड़ - भाड़ वाली सड़को पर भी ,
बिल्कुल अन्जान - अकेली ।
क्या था कसूर मेरा
मैँने चाहा इसे जानना
पर नहीँ जान पाई उस
प्रश्न के उत्तर को , चाह कर भी -
क्या यही कसूर था कि ,
मैँ किसी खास संप्रदाय की ,
बेटी थी !
जो चढ गई दंगाइयो की भेँट
बस इसलिए कि उसका
कोई कसूर न था ।
चाह कर भी न रोक पाई
अनहोनी को ,
आज भी मैँ खोजती हूँ ,
कहाँ हूँ मैँ ?
तो पाती हूँ खुद को
आज भी उन्हीँ दंगाइयोँ के
माँ - बहु - बेटियोँ के आसपास ........!
बहुत खूब भाई साहब...... आभार !
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