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Thursday, 29 September 2011

कसूर

क्या कसूर था मेरा ,
क्योँ लुट गई मेरी अस्मत ?
चढ गई भेँट भीड़ की मैँ
पैदा होना क्या गुनाह था ।

तबसे लेकर आज तक
एक दर्द सिने मेँ छुपाये
दूनिया से नजर बचाये
चल रही अकेली - सुनसान मेँ ,
भीड़ - भाड़ वाली सड़को पर भी ,
बिल्कुल अन्जान - अकेली ।
क्या था कसूर मेरा
मैँने चाहा इसे जानना
पर नहीँ जान पाई उस
प्रश्न के उत्तर को , चाह कर भी -
क्या यही कसूर था कि ,
मैँ किसी खास संप्रदाय की ,
बेटी थी !
जो चढ गई दंगाइयो की भेँट
बस इसलिए कि उसका
कोई कसूर न था ।
चाह कर भी न रोक पाई
अनहोनी को ,
आज भी मैँ खोजती हूँ ,
कहाँ हूँ मैँ ?
तो पाती हूँ खुद को
आज भी उन्हीँ दंगाइयोँ के
माँ - बहु - बेटियोँ के आसपास ........!

बदलाव

क्योँ जुड़ जाती है जिँदगी ?
किसी के मुस्कान से इस तरह ,
कि लगने लगती है हर चीज ,
बेजान उस मुस्कान के बगैर ।
क्योँ उसे गौर नहीँ करने पर भी ?
अपनी हजार खुशियाँ न्यौछावर है ,
उसकी एक हँसी के लिए ।
क्या हो जाता है हमेँ ?
उसे उदास देखकर ।
क्योँ भर जाती है आँखे ?
उससे बिछड़ने की कल्पना भर से ,
पर दूर तो होना ही था , सो हो लिए ।
इस उम्मीद के साथ कि ,
वो याद रक्खेगी हमेँ ,
बतायेगी अपने सारे राज ,
पहले की तरह ।
खोल कर रख देगी अपनी जिँदगी
के सारे पन्ने ,
काश ! ऐसा ही होता
तो मैँ न घबराता , न पाता ,
खुद को इतना अकेले ।
पर क्या करूँ ?
तन्हा था , तन्हा हूँ
और तन्हा ही रहूँगा
उसकी याद के साथ ..........!

Sunday, 18 September 2011

तेरी याद आ गई ............

फिर छा गई है बदरी , तेरी याद आ गई
फुलोँ पे देख भँवरे तेरी याद आ गई

जब भी की कोशिशेँ मैँ भुलने की वो शमां
अनजाने रहगुजर से तेरी याद आ गई

तुमको नहीँ पता मैँ करता हूँ इंतजार
तुम आओ या न आओ तेरी याद आ गई

आमोँ की डालियोँ पर कोयल की सुनकर
फुलोँ की क्यारियोँ मेँ तेरी याद आ गई

सबने हमीँ से पुछा पुनम की चाँद को
वो बात क्या छुपायी तेरी याद आ गई

मौसम ने की शिकायत जिँदगी से एक दिन
मैँ रह गया था तन्हा तेरी याद आ गई

चाहा जो जाना इकदिन खुद से खुदा से दुर
है शुक्र - ए - खुदाया तेरी याद आ गई

है ऐतबार मुझको वफा पे मेरे सनम
सुना लफ्ज़े बेवफ़ाई तेरी याद आ गई

होता जो कोई मेरे दिल का भी ' सारथी '
कोशिश की ढुढने की तेरी याद आ गई

Friday, 16 September 2011

बचपन

कहाँ गया वह मेरा बचपन ,
कहाँ गयी उसकी अंगराई ,
कहाँ गया उच्छृंखल जीवन ,
क्योँ आती है ये तन्हाई ?

कहाँ गया ममता का आँचल ,
कहाँ गयी उसकी अंगराई ,
कहाँ गया वो लाड - प्यार ,
अपनी छत क्योँ हुई पराई ?

यौवन मेँ बचपन सोता है ,
खोती बचपन की अंगराई ,
अल्हड. जीवन खो जाता है ,
आती जीवन मेँ तन्हाई ।

उड. जाता ममता का आँचल ,
खो जाती उसकी गहराई ,
लाड - प्यार जाते देखा है ,
आकर जाना ही लेखा है ।

फिर से ममता की बारिश हो ,
नई दृष्टि पा जाए जीवन ,
कदम बढे स्वच्छंद हमारा ,
काश ! अगर आ जाए बचपन ।

Tuesday, 6 September 2011

गज़ल

ग़म नहीं इस बात का कि तुमने हमें भुला दिया
गम रहा तो फ़क़त ये कि हम न तुम्हे भुला सके ।


तुमने बहुत कहा मुझे सुन ली तेरी हर दास्तां
बस तेरी दर्द-ए-जफ़ा किसी को न सुना सके ।


काट ली हर रात यों यादों के तेरे वास्ते
सो गई दुनिया, पर खुद को न हम सुला सके ।


बह गये जज्बात मेरे इस नदी की धार में
इक तेरे गम ही रहा जिसको न हम बहा सकें ।


हिल गया दिल ये मेरा सुनके वफ़ा की राह को
तुम तो वो जमीन हो जिसको न हम हिला सके ।

Sunday, 4 September 2011

अपना नहीं होता ......

मत कहो हर बात कोई अपना नहीँ होता
झुठे हैँ जज्बात  कोई अपना नहीँ होता ।

देखा न करो ख्वाब खुली आँखोँ से
सच कहीँ कोई कभी सपना नहीँ होता ।

जिँदगी बढती ही रहती हर घड़ी
इक मोड़ पे रुकना कोई रुकना नहीँ होता

मत सोच तुमसे छोटा है कोई कहीँ
झुक के मिलना भी कभी झुकना नहीँ होता ।

कुछ बात समझ लिजैँ इशारोँ से भी
हर बात जुबां से कहेँ कहना नहीँ होता ।

जिँदगी कहती है चलते रहने को
पर राह से हटके कोई चलना नहीँ होता ।

हैँ दूरियाँ एक छत के नीचे रहके भी
दिल से दुर रहके कोई रहना नहीँ होता ।

तुम दूर मुझसे इतना जो होते नहीँ
चाँद को पाने को मचलना नहीँ होता ।

सारथी चलता ले रथी को साथ मेँ
थक के रुकना भी कभी थकना नहीँ होता ।

रहें कैसै ?


चाह कर के भी हम तुम्हें चाहें कैसे,
तुम्हीं को दिल दिया ये तुमसे कहें कैसे ?

दर्द-ए-जुदाई, गम मिले तो पी गए,
बदनामियाँ जफा की मगर सहें कैसे ?

हमने तुमको कह दिया दिल में रहेंगे,
अब तुम्हारे बिन हम कहो रहें कैसे ?

जिन्दगी चलने को उकसाती रही,
बिन तुम्हारे इक भी कदम चलें कैसे ?

अब अकेले चलने की हिम्मत नहीं,
पग रोकना भी चाहे  तो रुकें कैसे ?

जब जब तेरी बेबसी सामने आती,
उन आंसुओं के बीच हम हँसें कैसे

कह दिया तेरी जरूरत अब नहीं,
सारथी बिन रथ भला चले कैसै ?

Friday, 2 September 2011

जागरण गीत...

उठो देश के नौजवानों ,
आपस में अब लड़ना छोड़ो ,
देखो कोइ लूट रहा है ,
उसे लूटने से अब रोको ।

लूटा करते थे पह्ले भी ,
लेकिन एक मर्यादा थी ,
आते लूट मचाते जाते ,
ना वह घर की पीड़ा थी ।

अब लूट रहे है वही हमें ,
समझे जिसको हम रखवाले ,
भेद करना अब बडा कठिन ,
है कौन हमे समझने वाले ।

लोकतंत्र अब बना है केवल ,
पथ कुर्सी तक जाने को ,
बैठ कुर्सी पर मतलब है ,
लाईसेंस लूट का पाने को ।

अन्न उगाते जी भर के ,
पर जनता दाने को मोहताज ,
सेठ करे अपनी मनमानी ,
गोदामो में भरा अनाज ।

अब जाग – जाग हे! नौजवान ,
ना जा तुम केवल खलिहान ,
है तुम्हे पूछ्ने का अधिकार ,
गया तुम्हारा अन्न कहा ?