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Tuesday, 7 October 2014

कैसी आज़ादी ?

ये कैसी आज़ादी है, ये कैसी आज़ादी ?
जिसमें चलती बस हरे कार्ड की आँधी ,
जिसमें उड़ते देखे जाते लाल कार्ड के धारी,
ये कैसी आज़ादी है, ये कैसी आज़ादी ?

लालकार्डधारी जिसकी नहीं कोई पहचान,
न ही कोई मान है इनका न कोई सम्मान ।
हरे कार्ड की बात न पूछो न मिलता यह दान,
बेचे और ख़रीदे जाते मान और सम्मान ।

ये कैसी आज़ादी जिसमे भुखे मरे किसान ,
नंगे रहे जुलाहे कपडा पहने बेईमान ।
सत्ता के बंटवारे से खुश हुए थे सामंत ,
हार गए थे खुदी, भगत सिंह जीत गया जयचंद ।

भ्रष्टाचार सभी रूपों में दिख रहें है,
लोग देखकर भी इसमें पिस रहें हैं ।
भ्रष्टाचार का फ़ैल रहा है अंधकार-सा हाथ ,
दे रहे नेता सामंत इसका साथ ।

काट खाए वो अँधेरा लग रहा हैं,
विश्व को सुरक्षा का भय हो रहा हैं ।
डर लग रहा इस अराजकता के तम से,
प्राण-प्राण त्रस्त एक अज्ञात भय से ।

अमीर कुबेर हो रहे गरीब हो रहे भिखारी,
महगाई ने कमर तोड़ दी चलती नही है गाड़ी।
कोई भी नही है हो रहा जनवादी,
ये कैसी आज़ादी है,ये कैसी आज़ादी है ?

मनुज ही मनुज को छल रहा है,
मनुष्यों की बस्ती में गद्दार पल रहा है ।
सत्ता के कोठे पर नीलाम होता है लोकतंत्र,
चुपचाप मूकदर्शक बने बैठा ये जनतंत्र ।

अबलाओं का होता है यहाँ पर चीरहरण,
यहाँ लोगों का जीना तो है मरण ।
क्यों इस मुर्दो की बस्ती में जी रहे हो,
क्यों नही जहर अब तलक पी रहे हो ।

आज जननी फिर है तुम्हे बुला रही,
सोने की हथकड़ियों में ये अकुला रही ।
कह रही सामंतो से मुझे आज़ाद कराओ,
कह रही गरीबों से मेरा भाग्य सवारों ।

जननी को बचाना होगा उनके कर्णधारों को,
अपनाना होगा शहीदों के विचारो को ।
विचारों को बना बुद्धि की 'सारथी'
प्रत्यंचा खींच गांडीव की मारो अर्धरथी ।

करो फिर एक नए कुरुक्षेत्र का ऐलान,
करो वह युद्ध जिसमें  हो जनकल्याण ।
भयानक समर के बाद जो पायेगी आबादी,
वही होगी जननी की "सच्ची आज़ादी" ।

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