ऐसा नहीं की हमने चाहत नहीं की है
हां सच है किसी की कभी आदत नहीं की है
ये गुमां हमें होता रहा बरसो मैं क्या कहूँ
सच ये भी है किसी से अदावत नहीं की है
है चाँद जो रहे तो रहे अपनी जगह पे
जो भी मिला नशीब में, खयानत नहीं की है
है आरज़ू मुझे तेरी, कैसे कहूँ भला
मैंने कभी भी खुल के वज़ाहत नहीं की है
तेरी बात, मुस्कराहट, ये शोख़ी, बांकपन
वरना कभी किसी पे हैरत नहीं की है
No comments:
Post a Comment